गुरुवार, 4 अप्रैल 2013

बेरहम राजा ( एक लघु कहानी)

राजा की आंखों पर स्वार्थ का चश्मा था। अब प्रजा के दुख उसके अपने नहीं थे। जो कल तक खुश थे। आज अपना दुखड़ा भी राजा से नहीं कहते। वो जानते थे राजा काहिल हो चुका है। यदा कदा कोई राजा के दरबार में शिकायत लेकर पहुंचता। तो राजा आश्वासन की मरहम पट्टी उसके लगा देता। और पुन: अपने रसरंजन में लीन हो जाता। उसके सितम की कहानी नहीं थम रही थी। और एक दिन की बात है जब एक बेहद गरीब फरियादी उसके दरबार पहुंचा। इस आस में कि शायद राजा उसकी माली हालत देख उसके दुख दर्द दूर करेंगे। याचक ने दर्द भरे लहज़े में कहा। याचक-हे राजन मेरी औलाद को बचा लो ! राजा-क्या हुआ तुम्हारी औलाद को ? याचक-वो कई दिनों से भूखा है, पत्नी भूख से पहले ही मर चुकी है, और मेरी हालत आपके सामने है। राजा-तुम क्या करते हो ? याचक-ज़मीन का एक टुकड़ा था, जो अब तक मुझे रोटी देता रहा, लेकिन अकाल ने हमारे परिवार को इस मोड़ पर ला खड़ा किया। मेरी ज़मीन पर फसल नहीं, मरे हुए जानवरों की अस्थियां बाकी हैं। राजा-क्या कहते हो, ये अकाल कब पड़ा ??? (राजा के इस सवाल पर पूरा दरबार हैरत में था। क्योंकि राजा को अपने राज्य की तकलीफों का संज्ञान नहीं था) याचक- हे राजन 3 महीने हो गए, राज्य में बारिश सिर्फ एक या दो बार हुई, कुएं सूख चुके हैं, तालाबों में पानी नहीं रहा, नदियां भी अपने आखिरी दिन गिन रही हैं, लोग नालियों से पानी छानकर गुज़र बसर कर रहे हैं। अगर और कुछ दिन बारिश नहीं हुई तो कई लोग बेमौत मारे जाएंगे। हुकुम कुछ कीजिए मैं अपने बेटे को यूं मरते देख नहीं सकता। राजा को उसकी बात पर यकीन नहीं था, क्योंकि कई दिनों से वो अपने महल परिसर से बाहर ही नहीं निकला था। उसे अपने व्यसनों से ही फुरसत कहां थी । राजा-ठीक है तुम जाओ, और अपनी ज़मीन के कागज़ वज़ीर को दे दो, उनसे अपनी ज़मीन की कीमत ले लो। और अपने बच्चे का पेट भरो। वज़ीर ने पांच सोने की मुहरें उस गरीब को दे दीं, और उसे दरबार से विदा कर दिया गया। अगले दिन याचक राजा के दरबार में अपने बेटे की लाश लेकर पहुंचा। याचक-राजन देखो तुम्हारी पांच सोने की मुहरें मेरी औलाद की जान नहीं बचा सकीं, मैने वो पांच सोने की मुहरें अपने बेटे को इसलिए खिला दीं, क्योंकि मैं इसको तिल तिल कर मरते नहीं देखना चाहता था। हे राजन जब प्रजा में किसी को भूख लगती है, तो उस भूख का दर्द आपको भी होना चाहिए। जब कोई दुखी हो, तो उसके आंसू आपको पोंछने चाहिए। कहीं मातम हो तो उसमें शरीक होना चाहिए। हे राजन आज मैं कहता हूं, कि आप हमारी प्रजा का नेतृत्व करने के लायक नहीं। (इतना सुनते ही राजा गुस्से से तिलमिला उठा) राजा-सिपाहियों इसकी ये ज़ुर्रत की ये हमारे नेतृत्व पर उंगलियां उठाए, कलम कर दो इसका सिर, हमने तो इसके बेटे की जान बचाने के लिए पांच सोने की मुहरें भी दी थीं, और इस बदज़ात ने हम पर ही उंगलियां उठाईं, काट दो इसकी उंगलियां, ले जाओ इसे मुझसे दूर। (राजा स्वार्थी के साथ बेरहम भी था, उसने वैसा ही किया जैसा उसने अपने सिपाहियों को आदेश दिया, पहले दरबार में उसकी उंगलियां काटी गईं, और कुछ दिन बाद उसका सिर कलम कर दिया गया) लेकिन जिस दिन उसका सिर कलम किया गया। प्रजा बागी हो गई। जो अब तक राजा के डर से सिर नहीं उठाते थे, वो सिर उठने लगे। राजा का चहुंओर विरोध शुरु हो गया। विरोध की इस लहर को हर ओर महसूस किया जाता। बात दूसरे राज्यों तक भी पहुंच गई। दूसरे राज्यों ने उस अत्याचारी शासक पर हमला बोलने की ठान ली। और वो दिन आया, जब उसकी सत्ता पर किसी और सुल्तान का कब्ज़ा हो गया। राजा को बंदी बना लिया गया। उस गरीब का श्राप राजा की सत्ता ले डूबा।

रविवार, 30 दिसंबर 2012

बढ़िए कुछ और आगे...

ज़िंदगी के रंगमंच के एक और नाटक का पटाक्षेप हो रहा है। नए साल के साथ नयी पटकथा शुरु हो रही है। आशाए, अभिलाषाएं, उम्मीदें, वादे, घर, परिवार, दोस्ती, यारी, सभी के लिए ये वक्त नया है। अतीत पीछे छूटने दीजिए। भविष्य की डोर थामिये। भूलिए मत भूत में क्या हुआ। भविष्य में क्या करना है, ये ज़हन में बसाइये। इस बार एक बुनियाद बनाइये। जिसमें सच का सीमेंट हो। ईमानदारी का लोहा हो। एहसासों की ईंट हो। यदि ऐसा कर सके, तो उस पर बनने वाली इमारत सच्चे दोस्त सी होगी। जिसमें आप अपना हर सुख अपना हर दुख बांट सकेंगे। इस नेपथ्य से बाहर निकलिए। अंधेरे की जगह, रोशनी को दीजिए। ये सकारात्मक ऊर्जा का संचार करेगी। अभिनय देखने से बेहतर अब ये है, कि अभिनय के मकसद को खुद में बसा लीजिए। दर्शक दीर्घा में अब आपकी जगह नहीं। आप मंच पर होने चाहिए। न्यूटन बनिए। नेपोलियन बनिए। असफलताओं से सीख लेने वाले लिंकन बनिए। हिंसा हल नहीं। अहिंसा रास्ता है। आगे बढ़िए। ज़िंदगी कांटों की सेज है तो क्या। इसी पर चलने वाले पांव घायल करके भी मुकाम तक पहुंचते हैं। गिरिए। संभलिए। उठिए। निढाल न होने दीजिए। क्योंकि आपकी सुस्ती दुश्मनों को मौका देती है। अगर गलतियां की। तो पश्चाताप कीजिए। प्रायश्चित पापों का निर्वाण है। प्रेमचंद से सीखिए। मुक्तिबोध से सीखिए। दिनकर से सीखिए। मधुशाला वाले हरिवंश से सीखिए। पर सतत् सीखने का प्रयास कीजिए। कोई भी छोटा, बड़ा संदेश दे सकता है।उम्र ज्ञान का पैमाना नहीं होती। तरक्की के रास्ते खुद तय कीजिए। सहारे की आस में अक्सर लोग बेसहारा हो जाते हैं। मदद मुहताज बना देती है। आप निरंतर चलेंगे तो मंज़िल को पाएंगे। आप थक जाएंगे तो रुक जाएंगे। ज़िंदगी का दर्शनशास्त्र हमें यही सिखाता है। बढ़िए कुछ और आगे । बाधाओं और बंदिशों के पार। इसी एहसास के साथ आपको नये साल की हार्दिक शुभकामनाएं। आप खुश रहें। लोग आपसे खुश रहें।

बुधवार, 12 सितंबर 2012

कहीं अंधेरे, कहीं उजाले

छन्नू की गरीबी उपहास का विषय नहीं थी । सोचने का विषय थी। हर किसी को खुश रखना उसकी आदत थी ।वो कब सोता। कब जागता। कब भूखा रहता । न सरकार ने कभी जाना न ही करीबियों ने । तीन बेटियां, और कई साल बाद पैदा हुआ एक चार साल का लड़का ‘बदरु’ उसके घर का चिराग था। वो उस अंधेरी झोपड़ी में भी खुश था, जिसमें टीन की छांव छत की तरह थी, दरवाज़े के नाम पर लकड़ियों का जाल, और दीवारें गोबर से लीप कर बनाई गई थीं। घर में चूल्हा हर रोज़ जले, इसलिए वो महीने के तीसों दिन काम पर जाता, दिहाड़ी मजदूर होने का दंभ उसमें साफ दिखता था। क्योंकि उसको कभी किसी के सामने हाथ फैलाते नहीं देखा गया। मुनिया, बिट्टी, डिबिया और बदरु को वो बेइंतेहां प्यार करता था। जो कि किसी अपवाद सा था, क्योंकि तीन लड़कियों को उतना प्यार नहीं मिलता जितना एक लड़के को। उसे पिता होने का फर्ज़ पता था, क्योंकि बदरु के जन्म के वक्त उसकी बीवी भगवान को प्यारी हो गई थी। वो भी इसलिए कि छन्नू अपनी गर्भवती पत्नी का सहीं तरीके से ख्याल न रख सका था। बदरु, छन्नू की बीवी की आखिरी निशानी था। लेकिन इतने पर भी छन्नू अपने चारों बच्चों को समान प्यार देने की कोशिश करता। सरकारी योजनाओं की दस्तक छन्नू के दरवाज़े पर कभी नहीं हो सकी थी। इस बात को उसने शिकायत के रुप में स्थानीय प्रशासन को कई बार बताया था। लेकिन बहरी हुकूमत में सुनने वाला कौन? किसी ने उसके उस अंधेरे संसार में झांकने की कोशिश नहीं की, जिस संसार में सिर्फ उसकी किराये की झोपड़ी, और चार संतानें शामिल थीं। इसलिए हर योजना से बेफिक्र होकर उसने खुद को मजबूत बना लिया था, और अपने परिवार का भरण पोषण कर रहा था। जिनकी खुदी बुलंद हो, खुदा उनसे पूछते हैं उनकी रज़ाओं के बारे मे। परंतु यहां तो खुदा को भी याद नहीं रहा, कि एक छन्नू भी है, जो भूखा सो जाता है कई बार, अपनी संतान के मुख में निवाला देखने के लिए। छन्नू का वक्त उजाले में रहने वालों कीं तरह नहीं बीतता था। हाड़ तोड़ मेहनत और रोटी की जुगाड़ ही उसकी ज़िंदगी का मकसद था। ज़िंदगी के संघर्षों के बावजूद छन्नू टूटा कभी न था। क्योंकि वो जानता था, अगर वो ही हार गया, तो उसकी तीन जवान बेटियां, और एक कुछ सालों का बेटा कहां जाएंगे, क्या खाएंगे, क्या रात को ओढ़ेंगे, बरसात में कौन उनकी छत बनेगा। ऐसे कई सवालों की ज़िम्मेदारी उसके दिल पर बोझ तो थी, परंतु अपनी संतानों के सामने उसने ये बोझ ज़ाहिर न होने दिया। इसलिए वो हर रोज़ कमा लेता, और हर रोज़ अपने बच्चों को खिला देता, कभी कभी उसकी मेहनत उसके ऊपर भी इनायत हो जाया करती, जब छन्नू अपना पेट भी जमकर भरता । यही तो थी छन्नू की ज़िंदगी की नियति। कोठियों से सौ मीटर की दूरी पर मौजूद उसकी झोपड़ी में किसी त्योहार को रंगत न आती। जब हर घर जगमगाता, तब उसकी झोपड़ी एक दीये को भी तरस जाती। लेकिन बोतल में भरा मिट्टी का तेल, और लोहे की डिब्बी में बनी उजाले की जुगाड़ उसके घर को रोशन कर देती थी अक्सर। वो इसी मंद रोशनी में खुश था। 11 हज़ार बोल्ट बिजली की लाइन उसकी झोपड़ी के कई मीटर ऊपर से गुज़री तो थी, लेकिन उन घरों में गई थी, जो बिजली के बिल का भार सह सकते थे। वो आधुनिक युग में आदिम ज़िंदगी सिर्फ इसलिए जी रहा था, क्योंकि हमारी व्यवस्था में खामियों के लाख पैबंद थे। जिनको सरकार ने रफू करने की ज़हमत भी कभी न उठाई।
एक रोज़ छन्नू बीमार पड़ गया। वो बारिश का महीना था, और शायद छन्नू के परिवार के लिए मातम का महीना भी। क्योंकि उसकी बीवी, और उसकी एक संतान, जिसका ज़िक्र अभी तक मैने नहीं किया, इसी बारिश के महीने में काल के गाल में समा गई थी। इसी महीने में छन्नू की संतान को दिमागी बुखार हुआ था, वो अपनी संतान का महंगा इलाज न करा सका था, इसलिए उसका दूसरा बेटा ‘उजीता’ 6 साल पहले स्वर्ग सिधार गया था। और आज वही हालात छन्नू के सामने खुद थे। वो बीमार था। इलाज कराने वाला कोई नहीं। इकलौता कमाने वाला था, तो वो छन्नू ही था। उसका इलाज कौन कराता। वो कई दिन बिस्तर पर पड़ा रहा, अपनी सेहत के दुरुस्त होने का इंतज़ार करता रहा। क्योंकि अभी भी उसने एक एक रुपया कर कुछ पैसे बचा रखे थे हारी बीमारी के लिए। इन्हीं पैसों के ज़रिए वो अपना इलाज नीम हकीम से करवा रहा था। इसी दौरान उसने अपनी दो बेटियों मुन्नी और बिट्टी को अपनी जगह काम पर भेज दिया, ताकि कुछ पैसे और आ सकें, घर का चूल्हा फिर से जल सके। मुन्नी और बिट्टी इस योग्य नहीं थीं, कि छन्नू की जगह काम कर सकती थीं, वैसे सरकारी नियम भी इस बात की इजाज़त नहीं देते कि कोई बाल श्रम करे। इस बात का न तो उन बच्चियों को इल्म था, और न ही छन्नू अपनी मुफलिसी में ये बातें मुन्नी और बिट्टी को सिखा सका था। गरीबी गुनहगार नहीं फिर भी गरीबों की मजबूरियां गुनाह करवाती है। छन्नू से भी वही गुनाह हुआ अपनी बीमारी के दौरान। एक NGO की नज़र उन मुन्नी और बिट्टी पर पड़ी, जिन्होंने उस बचपन को बिखरने से तो रोक लिया, लेकिन छन्नू की झोपड़ी तक वो NGO दस्तक न दे सकी। धीरे धीरे वक्त हाथों से खिसक रहा था। छन्नू बिस्तर से अभी तक न उठ सका था। वो जानता था कि जिस संगठन ने उसकी बेटियों को साथ न्याय किया है, असल में वही न्याय उसकी ज़िंदगी के साथ अन्याय बन गया था। क्योंकि ज़िम्मेदारी जब अधूरी हो, तो मकसद भी अंजाम तक नहीं पहुंचते। इलाज के अभाव में छन्नू की हालत बिगड़ने लगी थी, उसका अब तक कोई रहबर उसके सामने न था, और एक दिन वो हुआ जैसा भूख से जूझते, बीमारियों से लड़ते हर इंसान का होता है। छन्नू अपनी बीमारी की वजह से ज़िंदगी हार गया था, उसने गेहूं के खाली डिब्बे में रखी सल्फास को निकाल लिया, और खुद अपने पूरे परिवार को खाने में मिलाकर दे दिया। वो भोर उस झोपड़ी के लिए मातम भरी थी। रोने वाला कोई नहीं लेकिन पांच लाशें उस झोपड़ी में पड़ी थी। छन्नू, मुनिया, बिट्टी, डिबिया, और बदरु मौत की नींद सो चुके थे। उस झोपड़ी से जब शवों की सड़ांध बाहर आने लगी, तब लोगों को अहसास हुआ कि इस झोपड़ी में पांच मौतें एक साथ हो गईं। सभी की संवेदनाएं उन मौतों के साथ थीं। चंदा किया गया। अर्थी का इंतज़ाम किया गया। और सौ मीटर दूर मौजूद उस उजाले की दुनिया ने उस अंधेरी दुनिया का दाह संस्कार कर दिया। ये इत्तेफाक नहीं, हमारी व्यवस्था की हकीकत है, हमारे समाज की सच्चाई है। कहीं अंधेरे । कहीं उजाले।

रविवार, 9 सितंबर 2012

स्टेशन पर ही ठहर गई मुहब्बत

हमारे और उसके बीच में फासला था, तो बस एक चिलमन का। वो लंबे गेसुओं के बीच बनी खिड़कियों से मुझे देखती, मैं देख कर भी नज़र अंदाज़ करता रहता। यही दूरी हमारी मुहब्बत को और करीब लाती रही, पर अहसासों की मुंडेर पर प्यार का कबूतर तो उस रोज़ बैठा था, जिस रोज़ मैने उसे खुद से दूर जाते देखा। वो अपने घर जाने की बात कह कर मुझसे विदा ले रही थी। मानो कुछ छूट रहा था । उसके दिल का हाल तो जानता था, पर खुद बयां करने से डरता था। जैसे जैसे उसके कदम गली के मुहाने की ओर बढ़ रहे थे। वैसे वैसे दिल की कसमसाहट और तेज़ हो रही थी। सोच रहा था, उसको स्टेशन छोड़ने के बहाने साथ चला जाऊं। परंतु रिश्तेदारों की लोकलाज का भय ज़हन में नश्तर सा उतर जाता। मैने उसको स्टेशन तक छोड़ने की रस्मअदायगी को त्याग दिया, और वहीं दरवाज़े से करीब खड़ा खड़ा उसके गली से गुज़रने वाले आखिरी कदम को निहारता रहा। धीरे धीरे वो आँखों से ओझल हो रही थी। मेरी जुस्तजू उसका पीछा कर रही थी। ये उसका आखिरी कदम था, उस लंबी सी गली में, जिसने मुझे इस बात का अससास करा दिया, प्रेम बागावत का पौधा होता है। जिसमें जज़्बातों के पुष्प तो खिलते हैं, लेकिन उस पुष्प के इर्द गिर्द सामाजिक अस्वीकृति के कांटे होते हैं। कैसे बदलता उस अस्वीकृति को स्वीकृति की सच्चाई में ? मैं बागी बन गया, आव और ताव को बंधनों से मुक्त कर निकल पड़ा बंदिशों के पाऱ। दौड़ गया बंदूक से निकली गोली के मानिंद। इस आस में कि कहीं उसने स्टेशन की ओर जाने वाले ऑटो को अभी नहीं किया होगा, क्योंकि गली के मुहाने पर मौजूद मंदिर में वो हर रोज़ माथा टेका करती थी। न जाने उसे ईश्वर में कितनी आस्था थी, क्योंकि उसकी दिन चर्या को पिछले कई बर्षों से मैं अपने दिल की किताब में लिखता आया था। मैं अब गली के आखिरी छोर पर पहुंच गया था, जहां मैने उसके आखिरी कदम को देखा था। बायें देखने के पश्चात मुझे ज्ञात हुआ, कि वो अभी मंदिर में ही है, उसने अपना बैग मंदिर के करीब पड़े तखत पर रख रखा था। शायद उसे भी इस बात का अहसास था, कि वो आएगा और मेरे लिए स्टेशन तक जाने वाले कुली का काम कर सकता है। मैं उसके मंदिर से निकलने का इंतज़ार करने लगा। मंदिर के चारो ओर फेरे लगाकर उसने बैग को उठाया, और अपनी नज़रें मुझ पर इनायत कीं, एक सवाल के साथ ? नंदू तुम यहां ? मै घबरा कर बोला, घर में खाली बैठा बोर हो रहा था, क्या तुम्हें स्टेशन तक छोड़ दूं, यदि एतराज़ न हो ? मेरे सवाल में ही उसकी हामी का जवाब छिपा था, वो बोली हां चलो कुछ साथ मिल जाएगा। मैं उसके जवाब का उन छणिक सेकेंडों में बड़ी बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था। उसकी स्वीकृति मेरे लिए संजीवनी का काम कर गई, मैने ऑटो किया स्टेशन की ओर। उसका बैग ऑटो की पिछली सीट पर रखा और हम दोनों स्टेशन की ओर रवाना हो गए। उस ऑटो में भी दूसरे ऑटो की तरह एक आईना लगा था, जिससे प्राय : हम दोनों एक दूसरे को निहार रहे थे। वो पड़ोस में बैठी थी, फिर भी कोई बात नहीं, ये पहला मौका था, उसके करीब बैठने का। इसीलिए शायद दिल की घबराहट ने ज़ुबान पर ताला जड़ दिया था। लेकिन आइने के ज़रिये आंखें लगातार बातें और सवाल कर रही थीं। जब मैं उससे ऩजरें चुराता, तब वो मुझे देखती, और जब वो मुझे नज़रअंदाज़ करती, तब मैं उसे देखता। यही सिलसिला कई मिनटों तक चलता रहा। कि अचानक दिल भी बगावत पर उतर आया, मैने पूछा, कितने दिन के लिए घर जा रही हो। वो बोली गर्मियों की छुट्टियां हैं, सब लोग घर पर आये हैं, इसलिए एक महीने का टूर है। उसका एक महीने का टूर मानों मेरे ह्दय की वेदना बन गया। मैं उससे इसके बाद एक भी सवाल पूछ न सका। स्तब्ध होकर ऑटो में तब तक बैठा रहा, जब तक स्टेशन नहीं आ गया। इस दौरान उसने भी मुझसे कुछ नहीं पूछा। मेरा एक सवाल शायद आखिरी सवाल बन गया था। स्टेशन आ गया था, हम दोनों ऑटो से उतर चुके थे। उसने पहले ही अपने गंतव्य का रिज़र्वेशन करा लिया था। इसलिए बिना रुके, हम लोग स्टेशन की सीढ़ियों पर आगे बढ़ने लगे। प्लेट फॉर्म नंबर चार पर उसकी ट्रेन आने वाली थी। पर ट्रेन आने में अभी बीस मिनट का वक्त था। सरकारी व्यवस्था की खामी मेरे लिए मुहब्बत का क्लाईमेक्स बन गई थी। ट्रेन बीस मिनट की जगह दो घंटे लेट हो चुकी थी। क्योंकि स्टेशन पर उद्घोष हुआ था, कि शिमला को जाने वाली कालका एक्सप्रेस दो घंटे लेट है, और इस देरी के लिए रेलवे सभी से क्षमा भी मांग रहा था। हम लोग स्टेशन पर खाली सीट तलाशने लगे, लेकिन हर सीट भरी हुई थी, इसलिए मैने फैसला किया कि हम उस ट्रेन में बैठ जाते हैं तब तक, जो एक दम खाली थी, और कुछ घंटों तक स्टेशन पर ही खड़ी रहने वाली थी। शायद मौका और दस्तूर दोनों ही मेरे साथ थे। मुझे अब मुहब्बत के उस बागी चेहरे पर प्यार आ रहा था। मुझे बगावत का वो फैसला सही लगने लगा था। हम दोनों उस ट्रेन में खिड़की के करीब वाली सीट पर आमने सामने बैठ गये, और स्टेशन परिसर पर दौड़ने वाली भीड़ को निहारने लगे। कई मिनटों तक हमारे बीच संवादों की कोई लहर पैदा न हो सकी। लेकिन दिल को इस बात की दस्तक मिल चुकी थी, कि वही कुछ बोलेगी । मेरा कयास सही था, करीब 17 मिनट बाद उसके होठों पर हरकत हुई, एक सवाल के रुप में। नंदू तुम बता कर तो आए हो ना कि कहां जा रहे हो ? उसकी जिज्ञासा को मैने नहीं के जवाब से तोड़ दिया। उसने फिर पूछा घर पर कोई तुम्हें ढूंढेगा तो नहीं ? मैने कहा नहीं आज संडे है ना घर पर पता होगा कि मैं किसी दोस्त के यहां गया हूं। अच्छा। ठीक है, और बताओ सब कैसा चल रहा है। मैने कहा सब ठीक है। और तुम बताओ आज बहुत खुश होगी ना, घर जा रही हो एक महीने के लिए। उसने मेरे इस सवाल का जवाब अपनी मुस्कुराहट के साथ दिया। इसी बीच मैने कहा कि मैं एक मैगज़ीन लेकर आता हूं, और कुछ खाने का सामान भी, तुम यहां से हिलना मत, और अगर ये ट्रेन स्टेशन से रवाना होने लगे तो पहले ही नीचे उतर जाना इससे पहले की ट्रेन स्पीड पकड़ ले। उसने मुस्कुराते हुए कहा अच्छा बाबा ठीक है। मैं सारा सामान लेकर आ चुका था। ट्रेन चली नहीं थी, वो उसी सीट के पड़ोस की खिड़की पर अपना सिर टिका कर बैठी शायद मेरा इंतज़ार कर रही थी। बोगी में मेरी मौजूदगी की आहट ने उसकी खामोशियों को तोड़ दिया, वो बोली आ गए तुम बड़ी देर लगा दी। मैने कहा काफी भीड़ थी इसलिए देर हो गई। मैने मैगज़ीन के पन्ने पलटना शुरु कर दिये, और उसके हाथों में चिप्स और कोल्ड ड्रिंग की बोतल थमा दी। अब उसके ऊपर ही ज़िम्मेदारी थी, चिप्स का पैकेट और कोल्ड ड्रिंक की बोतल खोलने की। शीघ्र ही उसने मुझे प्लास्टिक के गिलास में कोल्ड ड्रिंक दी, और चिप्स अपने हाथों से मेरी ओर बढ़ा दिये। मैने मैगज़ीन बंद कर दी। और उस हसीन लम्हे का स्वाद लेने लगा। ट्रेन आने में अभी भी करीब 45 मिनट का वक्त था। कि उसने पूछा, नंदू और क्या प्लान है भविष्य का। मैने अजीब अंदाज़ में जवाब दिया, कहा हुइहे वही जो राम रचि राखा। बेनूर ज़िंदगी में किसी नूर का इंतज़ार है। उसने कहा, कम बोलते हो, लेकिन बड़ा गहरा बोलते हो। उसकी बात का जवाब इस बार मैने भी अपनी मुस्कुराहट से दिया था। क्या नूर घर वालों ने तलाशा नहीं तुम्हारे लिये, मैने कहा कितनी ज़िम्मेदारियां संभालेंगे वो, कुछ काम तो मुझे भी खुद से ही करना है। तो तुम ही तलाश लो अपनी नूरी को। कोई पसंद है क्या, उसने पूछा ? मैने कहा हां पसंद तो है, पर डरता हूं, कहीं वो मुझसे दूर न चली जाये, इसलिए इज़हार से भी डरता हूं। अच्छा ये बात है, मुझे बताओ मैं तुम्हारी दोस्ती करा दूंगी। वो नादान नहीं थी, सब कुछ जानते हुए भी मुझसे कबुलवाना चाहती थी। लेकिन मैं भी ढीठ था, मैने कहा तुम दोस्ती करा सकोगी, क्या तुमको अपने ऊपर इतना भरोसा है ? उसने कहा, आजमा कर देख लो, काम न आ सकी तो कहना । मैने मुस्कुराते हुए कहा ठीक है, वक्त आने पर तुम्हारी मदद लूंगा। अब मेरी बारी थी, मैने पूछा तुमने क्या विचार किया है अपने भविष्य के बारे में, पढ़ाई वगैरा तो खत्म हो गई, अब तो जॉब भी लगने वाली है तुम्हारी। उसने कहा हां, ये तो है, मैं भी कुछ कुछ तुम्हारी तरह ही सोचती हूं, मैं भी सोच रही हूं, कि तुम्हारी तरह किसी को अपनी आंखों का नूर बना लूं। मैने उत्सुकता से कहा, फिर देर किस बात की। लोहा गरम है मार दो हथौड़ा। वो इस बात पर बहुत ज़ोर से हंसी, और बोली तुम भी ना। मैने कहा इसमें हंसने की क्या बात है, जो तुमको हो पसंद वही बात कहेगा, तुम दिन को कहो रात तो रात कहेगा। वो बोली क्या बात है, साथी हो तो ऐसा ही हो। कुछ मैं उसको समझूं, कुछ वो मुझको समझे, हम दोनों एक दूसरे को समझें, और बस ज़िंदगी रफ्तार पकड़ ले। मैने कहा देखा संगत का असर तुम भी साहित्यिक हो गईं ना। इसी बीच हमारे संवादों में तब खलल पड़ा, जब इस बात का रेलवे स्टेशन पर उद्घोष हुआ, कि ट्रेन आने वाली है। अब मेरे विचार अचानक तूफान पर सवार हो गए थे, क्योंकि मुझे अपने दिल की बात को जल्द से जल्द उस तक पहुंचाना था। मैने कहा एक बात बताओ तुमने कभी अपने आस पास किसी को पसंद किया, या तुमको कोई अच्छा लगता है। उसने कहा हां अनुपम(इस बार उसने मेरा स्कूल वाला नाम लिया था)। मैने पूछा किसको ? उसने मेरे सवाल का जवाब अपनी खामोशियों से दिया, पलकें झुका कर। इसी बीच स्टेशन पर एक बार फिर ट्रेन के आने की सूचना दी गई। हम दोनों जल्दबाज़ी में ट्रेन की बोगी से नीचे उतरे और प्लेटफॉर्म नंबर चार की ओर अपने कदम बढ़ाने लगे। ट्रेन स्टेशन परिसर में दाखिल हो चुकी थी, हम ट्रेन के रुकने का इंतज़ार कर रहे थे। मैं बेचैनी के साथ बी-2 बोगी पर नज़रें टिकाये हुआ था। कमोबेश बी-2 वहीं पर था, जहां पर हम दोनों खड़े थे। मैने उसको ट्रेन के भीतर बैठाया। और कुछ देर के लिए उसके पास बैठ गया, ट्रेन में कुछ ही लोग सफर कर रहे थे। मैने सोचा अब नहीं कह सका, तो शायद कभी न कह पाऊंगा अपने दिल की बात। मैने उससे बड़ी ही शालीनता से पूछा, तुम्हें मैं कैसा लगता हूं ? उसने कहा तुम्हारे इस सवाल का जवाब मैं तुम्हें पहले दे चुकी हूं, चुप रहकर। कुछ बातें बताने की नहीं, महसूस करने की होती हैं। उसका ये जवाब मेरे लिए सकारात्मक था। मैने कहा क्या तुम मुझसे जीवन पर्यंत जुड़ना चाहोगी। इस सवाल पर उसने कोई जवाब नहीं दिया। न ही उसकी चुप्पी से मुझे इस बार कोई जवाब मिला। ट्रेन स्टेशन से रेंगने लगी थी। मैने कहा खैर कोई बात नहीं अब तुम अपने घर जाओ और एक महीना आराम से बिताना। मुझे इंतज़ार रहेगा अपने आखिरी सवाल के जवाब का। उसने अपना हाथ मेरी ओर बढ़ाया, मैने भी अपना हाथ उसके हाथ पर रख दिया। कुछ सेकेंड के लिए हम दोनों भूल चुके थे, कि आखिर हम कौन सा पल जी रहे हैं। ट्रेन रफ्तार पकड़ने वाली थी, मुझे ट्रेन से उतरना था, पर दिल नहीं मान रहा था। लेकिन ट्रेन से उतरना मेरी मजबूरी बन गया था। अब हम दोनों का हाथ एक दूसरे से अलग था, मैं ट्रेन से नीचे उतर चुका था। वो कांच की खिड़कियों से अभी भी अपना हाथ मेरी ओर हिला रही थी। मेरा भी हाथ उसको विदा कर रहा था। ये वक्त बिछड़ने का था। और बदकिस्मती से स्टेशन पर ठहरी मुहब्बत ने अपना दम तोड़ दिया। कई साल हो गये उससे बात किये। अब न उसका कोई ख़त आता है, न ही कोई फोन। मैं भी काफी व्यस्त हो चुका हूं। उसको भूल चुका हूं। चिलमन का वो फासला इतना दूर हो जाएगा सोचा न था। शायद कुछ फासले, दूरियों के लिये ही बनते हैं। जो वक्त के साथ बढ़ती जाती हैं।

शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

कॉरपोरेट बालाएं, कॉरपोरेट बॉस, मामला बिंदास

बाला के लक्षण कैसे भी हों। अगर बॉस के इर्दगिर्द घूमना सीख लिया। तो समझिए बॉस भी खुश और लड़की भी। तरक्की पसंद बालाए, और बाला पसंद बॉस कॉरपोरेट युग के आदर्श हैं। बाला काम और कपड़ों के प्रति संजीदा न हों, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर बॉस के इर्दगिर्द लट्टू सी घूमना जानती हैं, तो उनमें न कोई कमी न कोई खामी। इसी उद्योग में कुछ दूसरी बालाएं भी हैं। पर कम। जो स्वभाव से उग्र हैं। उनमें ज़िम्मेदारियां निभाने की आग है। कपड़े भी शालीन हैं। ज़ुबान से काम की तेजी झलकती है। लेकिन बॉस के केबिन से दूर ही रहती हैं। तो ऐसी लड़कियां न अपने बॉस के लिए खुशी का कारण बनती हैं। और न ही उनकी भूख मिटाने वाला निवाला। कॉरपोरेट में काम करते हुए भी ये कॉरपोरेट की काली नीतियों से दूर ही रहती हैं। चमचा नहीं बन सकतीं, लट्टू होकर नहीं घूम सकतीं। ज़िम्मेदारी निभाने से मतलब है। ड्यूटी पर आती हैं। ड्यूटी पर जाती हैं। और न ही किसी से फालतू बात। बालाओं को आज के युग में तरक्की बेहद पसंद है। रास्ता आसान हो तो कुछ भी कर गुज़रने को तैयार, बॉस की बीवी नहीं तो घर पर बर्तन भी मांझ सकती हैं। और आवश्यकता पड़ने पर बीवी की हक़ अदायगी भी कर सकती हैं। सहमति जब स्वतंत्र हो, तो हर रिश्ता वाजिब। दोष न बाला का है, न ही बॉस का है। वक्त की जरुरतों ने गैरतमंदों को भी बेगैरत बना दिया। अब आइना देख कर भी उन्हें लज्जा नहीं आती । क्योंकि लज्जा रुपी विचार को वो कॉरपोरेट की काली दुनिया में गुमा चुके हैं। बाला के लिए बॉस जरुरी, और बॉस के लिए कई बालाएं। चलिए अगर इस नीति से जगत का भला हो तो कुछ ठीक लग भी सकता है। लेकिन जब रिश्ते निजी हितों के लिए ही बने हों, तो प्रबंधन के साथ तो ये धोखे जैसा ही है। बॉस अपने ओहदे और योग्यता का फायदा उठाता है। और बालाएं अपनी अदाओं का । ये बात अलग है कि मटकने वाली बालाओं से बॉस हुनर की तमन्ना कभी नहीं पालता। न ही कभी काम में बरती गई कोताही पर उंगलियां उठाता। उसके सामने कौन काम कर रही है, और कौन काम नहीं कर रही, ये सिर्फ इस पर निर्भर है, कि बाला ने बॉस को कितनी लिफ्ट दी। बॉस तय करते हैं, फलानी हुनरमंदर है, फलानी काम में सच्ची है, फलामी तुमसे बेहतर है और तुम ये क्या करती हो। तुम्हें काम नहीं आता । जाहिल कहीं की (ये उनसे जो समझौतावादी नहीं)। सारी बातें दरकिनार कि जो जाहिल है असल में वही उद्योग को लाभ पहुंचा रही है। नज़र अपनी हो और चश्मा दूसरों का तो सिर्फ बुराई ही नज़र आती है। इठलाने की अदा हर बाला में नहीं होती। समझौते की अदा हर किसी के खून में नहीं होती। कुछ तो ईमानदार भी हैं, जिन्हें देखकर बॉस काला चश्मा चढ़ा लेते हैं। ये बात अलग है कि इठलाने और बलखाने वालियों के सामने वो पूरे नंगे हो जाते हैं। कॉरपोरेट बालाएं, कॉरपोरेट बॉस, मामला बिंदास। इसी युग में हमें जीना है। धिक्कार है ऐसी नीतियों पर । धिक्कार है ऐसी आदतों पर । कब तक इस कॉपोरेट की चकाचौंध में बालाएं अपना शोषण कराती रहेंगीं। कब तक बॉस मजबूरियों का फायदा उठाएंगे। क्यों नहीं योग्यता का सही आंकलन उनके लिए है, जो काम करना जानते हैं। क्या सिर्फ ठिठोलियों से काम चलता है। क्या सिर्फ अदाएं दिखाने से संस्थान चलता है। अपने चश्मे से भी तो आंकिये समाज को । फिर देखिए दुनिया में कितने दीन दुखी हैं। कितने हुनरमंद हैं। कितने लोग सच्चे हैं। कितने ऐसे लोग हैं जिनसे आप खुद प्रेरणा ले सकते हैं।

गुरुवार, 14 जून 2012

कभी हम, कभी तुम...

कभी टकराना मुसीबतों से, तो पता चलेगी सच्चाई ज़िंदगी की ।। कभी खरीदना किसी के ग़म, तो पता चलेगा खुशी का वहम ।। कभी तोड़ देना बंदिशों को, तो पता चलेगा आज़ादी का भरम।। कभी सोचना गहराइयों से, तो पता चलेगा हर झूठ का हरम।। कभी सोचना किसी चोट के बारे में, तो पता चलेगा असर-ए-मरहम ।। कभी हम कभी तुम पर सोचना, क्या आसान है ज़िंदगी ।। कभी टटोलना वादों का गड्ढा, तो पता चलेगा वादाखिलाफी का मीटर।। कभी महसूस करना कर्म के असल को, तो पता चलेगा ज़िंदगी का मुनाफा ।। कभी खेलना किसी मज़लूम ज़िंदगी से, तो पता चलेगी किसी जान की कीमत।। कभी कूच करना पहाड़ियों का, तो पता चलेंगी बुलंदियां सरहद की।। कभी जाना तिब्बत और सियाचीन में, तो पता चलेगा सियासत का फलसफा।। कभी गुज़र जाना आंधी तूफानों से, तो पता चलेगी उखड़ते कदमों की कुब्बत।। कभी गंदी बस्ती से गुज़र भी जाना, तो पता चलेगी हर दुर्गंध की कीमत ।। कभी हम कभी तुम पर सोचना, क्या आसान है ज़िंदगी ।। कभी मुस्कुराना गम-ए-महफिल, तो पता चलेगी सुखों की ताकत।। कभी करना ठिठोलियां रंजिश में, तो पता चलेगी हंसी की कीमत ।। कभी गुज़रना बदनाम गलियों से, तो पता चलेगी कौड़ी-ए-ईमान की कीमत।। कभी सिसक लेना अंधेरी रातों में, तो पता चलेगी एक साथ की कीमत।। कभी टूट जाना किसी कांच सी, तो पता चलेगी आईना होने की कीमत।। कभी हम कभी तुम पर सोचना, क्या आसान है ज़िंदगी ।।

गुरुवार, 31 मई 2012

कौड़ियों के भाव...

ज़िंदगी के सौदे में बिके हैं कई बार पर कौड़ियों के भाव पर कौड़ियों के भाव नीलाम हुनर भी हुआ पर कौड़ियों के भाव पर कौड़ियों के भाव तिजारतों में बिक गया रगों का खून भी पर कौड़ियों के भाव पर कौड़ियों के भाव लिखते मगर सच्चाइयां बचते हैं सचों से उनकी गली में हो गया इंसान कत्ल भी पर कौड़ियों के भाव पर कौड़ियों के भाव मजदूर कहीं वो बने श्रम बेचते रहे कीमत लगाई थी पर कौड़ियों के भाव पर कौड़ियों के भाव सजते रहे शरीरों पर बन किराए ए नगीना राशि मुश्त भी चुकाई पर कौड़ियों के भाव पर कौड़ियों के भाव दो जून की जुगाड़ों में कट गए दिन रात झुलसते रहे बदन पर छांव न मिली वेतन दिया उसे भी बड़ा सोच समझ कर पर कौड़ियों के भाव पर कौड़ियों के भाव न मोल था जज़्बात का बेमोल थी हंसी थोड़े रहम से बिक गया उनका शरीर भी पर कौड़ियों के भाव पर कौड़ियों के भाव